para Todos
Aparición Trascendental de Srimati Visnupriya Ki... Jay! Goura Premanandi!
पराशर धर्मशास्त्र----
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१--पराशर जी ने सदाचार और धर्माचरण को ही परम कल्याण बताया ही और पापाचरण से सदा दूर रहने का उदेश दिया है! वे कहते हैं-----
धर्म एव कृत: श्रेयानिहलोके परत्र च!
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिना:!! [म. भा. २९०/६]
अर्थात जैसा कि मनीषी पुरूषों का कथन है,धर्म ही विधिपूर्वक अनुष्ठान किया जाय तो वह इसलोक और परलोक में भी कल्याणकारी होता है! उससे बढ़ कर दूसरा कोई श्रेय का उत्तम साधन नहीं है!
२--मनुष्य दूसरों के जिस कर्म की निंदा हरे, उसको स्वयं भी न करे! जो दूसरे की निंदा तो करता है, किन्तु स्वयं यसी निन्द्य कर्म में लहा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है---
परेषां यदसूयेत न तत कुर्यात स्वयं नर:!
यो ह्यसू युस्तथायुक्त: सोsवहासं नियच्छति !! [म.भा. २९०/२४]
३-- इसी प्रकार, धर्म का पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है! जो अधर्म से प्राप्त होता है, वह धन तो धिकार देने योग्य है! संसार में धन की इच्छा से शाश्वत धर्म का त्याग कभी नैन करना चाहिये!---
येsर्था धर्मेण ते सत्या येsधर्मेण धिगस्तु तान!
धर्मे वै शाश्वतं लोके न जह्याद धनकाक्षया !![म.भा.१९२/१९]
४--ऐसे एक अन्य उपदेश .एन पराहर जी निश्चय पूर्वक अपना परामर्श व्यक्त करते हुए कहते हैं---
सद्भिस्तु सह संसर्ग: शोभते धर्मदर्शिभी:!
नित्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मति:!!
अर्थात---धर्म दृष्टि रखने वाले सत्पुरुषों के संसर्ग में रहना ही श्रेष्ठ है, परन्तु किसी दशा में दुष्ट पुरुशुं का संग अच्छा नहीं है, यह मेरा दृढ निश्चय है!
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५--सब से भयकारक धन जो धर्म के नाम पर [ईश्वर आदि नामों को के दाम] लेते हैं ऐसे पुरुष व् उनका साथ देने वाले और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाले [सुनाने वाले] १४ इन्द्रों के राज्य काल तक नरक में रहते हैं !
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१--पराशर जी ने सदाचार और धर्माचरण को ही परम कल्याण बताया ही और पापाचरण से सदा दूर रहने का उदेश दिया है! वे कहते हैं-----
धर्म एव कृत: श्रेयानिहलोके परत्र च!
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिना:!! [म. भा. २९०/६]
अर्थात जैसा कि मनीषी पुरूषों का कथन है,धर्म ही विधिपूर्वक अनुष्ठान किया जाय तो वह इसलोक और परलोक में भी कल्याणकारी होता है! उससे बढ़ कर दूसरा कोई श्रेय का उत्तम साधन नहीं है!
२--मनुष्य दूसरों के जिस कर्म की निंदा हरे, उसको स्वयं भी न करे! जो दूसरे की निंदा तो करता है, किन्तु स्वयं यसी निन्द्य कर्म में लहा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है---
परेषां यदसूयेत न तत कुर्यात स्वयं नर:!
यो ह्यसू युस्तथायुक्त: सोsवहासं नियच्छति !! [म.भा. २९०/२४]
३-- इसी प्रकार, धर्म का पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है! जो अधर्म से प्राप्त होता है, वह धन तो धिकार देने योग्य है! संसार में धन की इच्छा से शाश्वत धर्म का त्याग कभी नैन करना चाहिये!---
येsर्था धर्मेण ते सत्या येsधर्मेण धिगस्तु तान!
धर्मे वै शाश्वतं लोके न जह्याद धनकाक्षया !![म.भा.१९२/१९]
४--ऐसे एक अन्य उपदेश .एन पराहर जी निश्चय पूर्वक अपना परामर्श व्यक्त करते हुए कहते हैं---
सद्भिस्तु सह संसर्ग: शोभते धर्मदर्शिभी:!
नित्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मति:!!
अर्थात---धर्म दृष्टि रखने वाले सत्पुरुषों के संसर्ग में रहना ही श्रेष्ठ है, परन्तु किसी दशा में दुष्ट पुरुशुं का संग अच्छा नहीं है, यह मेरा दृढ निश्चय है!
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५--सब से भयकारक धन जो धर्म के नाम पर [ईश्वर आदि नामों को के दाम] लेते हैं ऐसे पुरुष व् उनका साथ देने वाले और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाले [सुनाने वाले] १४ इन्द्रों के राज्य काल तक नरक में रहते हैं !
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SAD-BHUJA, LA FORMA DE SEIS BRAZOS DEL SEÑOR
Los seguidores de Caitanya Mahaprabhu a veces Lo adoran en Su forma de seis brazos (sad-bhuja). Dos brazos tienen el jarro de agua y la vara (danda) del sannyasi Caitanya Mahaprabhu, dos brazos tienen la flauta del Señor Krishna, y dos brazos tienen el arco y la flecha del Señor Ramacandra.
Los seguidores de Caitanya Mahaprabhu a veces Lo adoran en Su forma de seis brazos (sad-bhuja). Dos brazos tienen el jarro de agua y la vara (danda) del sannyasi Caitanya Mahaprabhu, dos brazos tienen la flauta del Señor Krishna, y dos brazos tienen el arco y la flecha del Señor Ramacandra.
Un verso del Srimad-Bhagavatam (11.5.34) describe la forma de seis brazos del Señor, en el que se refiere simultáneamente al Señor Caitanya, al Señor Krishna y al Señor Ramacandra. Primero, ilustrando al Señor Caitanya, se traduce lo siguiente: "Oh Maha-purusa, yo adoro Tus pies de loto. Tú abandonaste la asociación de la diosa de la fortuna [Visnu-priya-devi] y toda su opulencia, a la cual es muy dificil de renunciar y es anhelada aún por los grandes semidioses. Siendo el más fiel seguidor del sendero de la religión, de éste modo, Tú partiste para el bosque [p.e., aceptaste la orden de vida de renuncia, sannyasa] en obediencia a la maldición de un brahmana. Por la pura gracia Tú irás en pos de las caídas almas condicionadas, quienes están siempre en procura del falso placer de la ilusión, y al mismo tiempo Te empeñaste en descubrir Tu propio objeto del deseo [El Señor Syamasundara.]"
Ilustrando al Señor Ramacandra, el verso reza lo siguiente: "Oh Maha Purusa, yo adoro Tus pies de loto. Tú abandonaste la opulencia real [de Ayodhya], a la cual es muy dificil de renunciar y es anhelada aún por los grandes semidioses. Siendo el más fiel seguidor del sendero de la religión, de éste modo, Tú partiste para el bosque [Dandakaranya] en obediencia a las palabras de Tu padre. Allí fuiste en pos de un ilusorio venado deseado magnánimamente por Tu amada [Sita-devi]."
Ilustrando al Señor Krishna, el verso reza lo siguiente: "Oh Maha Purusa, yo adoro Tus pies de loto. Tú abandonaste la opulencia real [de Mathura], a la cual es muy dificil de renunciar y es anhelada aún por los grandes semidioses. Siendo el más fiel seguidor del sendero de la religión, de éste modo, Tú partiste para el bosque [Vrndavana] en obediencia a la petición de Tus padres. Allí, actuando tal como un animal de jugete, Tu apareces bajo el control de Tu amada Srimati Radharani, y llenar Sus deseos de perseguirTe de aquí para allá en Vrndavana."
EL DANDA DEL SEÑOR CAITANYA
¡" Ah, Mi danda! Estoy asombrado de ver que aunque yo haya dejado todo por haciéndome un sannyasi, de todos modos usted nunca me ha dejado, pero en cambio ha dejado Conmigo la vida después de la vida. Cuando yo viajaba en el bosque como Lord Sri Ramacandra, usted era siempre en Mi mano como Mi arco y flecha. Y también durante Mi Lila Purushottama el pasatiempo de Bhagavan Sri Krishna, usted estaba siempre allí en Mi mano como Mi flauta que cautiva el mundo entero con Krishna-prema. Y ahora después de que he dejado todo, de todos modos usted nunca me ha dejado y así usted permanece Conmigo como Mi danda para vencer la filosofía falsa de pasandis (los ateos) en Kali-yuga. "
"Oh, My danda! I am amazed to see that although I have given up everything by becoming a sannyasi, still you have never given Me up but instead remained with Me life after life. When I was traveling in the forest as Lord Sri Ramacandra, you were always in My hand as My bow and arrow. And also during My Lila Purushottama pastime of Bhagavan Sri Krishna, you were always there in My hand as My flute captivating the entire world with Krishna-prema. And now after I have given up everything, still you have never given Me up and thus you remain with Me as My danda in order to vanquish the bogus philosophies of pasandis (the atheists) in Kali-yuga."
"Oh, My danda! I am amazed to see that although I have given up everything by becoming a sannyasi, still you have never given Me up but instead remained with Me life after life. When I was traveling in the forest as Lord Sri Ramacandra, you were always in My hand as My bow and arrow. And also during My Lila Purushottama pastime of Bhagavan Sri Krishna, you were always there in My hand as My flute captivating the entire world with Krishna-prema. And now after I have given up everything, still you have never given Me up and thus you remain with Me as My danda in order to vanquish the bogus philosophies of pasandis (the atheists) in Kali-yuga."
tava kara-kamala-vare nakham adbhuta-sringam
dalita-hiranyakasipu-tanu-bhringam
kesava dhrita-narahari-rupa jaya jagadisa hare
dalita-hiranyakasipu-tanu-bhringam
kesava dhrita-narahari-rupa jaya jagadisa hare
प्रणव तारक मन्त्र---ॐ
इस प्रणव मन्त्र को तारक मन्त्र कहा जाता है, क्योंकि इस मन्त्र द्वारा प्राणिमात्र भव-समुद्र से तर जाते हैं! भगवान् शंकर कहते हैं---
एनमेव देवेशे सर्वमन्त्रशिरोमणिम!
काश्याम्हं प्रदास्यामि जीवानां मुक्तिहेतवे!!
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अर्थात हे देवी! सर्व मन्त्रों के शिरोमणि इस ओंमकार को ही मैं काशी में प्राणत्याग करने वाले जिवून को मुक्ति हेतु देता हूँ!
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अधिकारी भवेद्यस्य वैराग्यं जायते दृढम!
अर्थात जिसे दृढ वैराग्य हो वही इसका अधिकारी है!
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प्रणब का स्थान---
आधारों मणिपूरश्च हृदयं तु तत: परम!
विशुद्धिराज्ञा च तत: शक्ति: शान्तिरिति करामात!!
स्थानान्येतानि देवेशि शान्तयतीतं परात्पराम!!
अर्थात---
आधार, मणिपूर, हृदय, विशुद्धिचक्र, आज्ञाचक्र, शक्ति और शान्ति--ये कलाक्रम से प्रणव के स्थान हैं, गे देवी! शान्ति से अतीत है उसको
"परात्पर: कहते हैं!
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उपासना-विधि
******************** ह्त्पुणडरीकं [शब्द भेद आधा ण है] विरजं विशोकं विशदं परम!
अष्टपत्रं केशराढयं कर्निकोपरि [ न=ण] शोभितम!!
आधार शक्तिमारभ्य त्रितत्त्वान्तमयं पदम्!
विचिन्त्य मध्यतस्तस्य दहरं क्योम भावयेत !!
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरण मां त्वया सह!
चिन्तयेन्मध्यतस्तस्य नित्यमुद्युक्तमानस:!!
अर्थात---
उपासक स्वच्छा, शोक रहित, उज्ज्वल, अष्टदल कमल के समान मकरन्द युक्त, कर्णिका से शोभायमान हृदय-कमल के मध्य में आधार-शक्ति से आरम्भ करके त्रितत्त्वमय उत्तम पदका द्य्हान करके दहर व्योम की भावना करे! " ॐ" इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण कर तुम्हारे साथ मेरा दहराकाश के बीच में सदा उत्कंठा से चिंतन करे!
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उपासना का फल ----
******************************
एवं विधोपासकस्य मल्लोकगतिमेव च!
मत्तो विज्ञानमासाद्य मत्सायुज्यफलं प्रिये!!
अर्थात हे प्रिये! इस प्रक्जार उपासना करने वाले को मेरे लोक की गति प्राप्त होती है और मुझ से ज्ञान प्राप्त कर अह मी ही सायुज्य को प्राप्त हो जता है!
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जप---विधि-----
ॐ अस्य श्री प्रणव मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, गायत्री छंद:, परमात्मा सदाशिवो देवता, अं बीजम, उं शक्ति, मं कीलकम, मम मोक्षार्थे जपे विनियोग!
************************************************************
अंगन्यास----
शिरसि, ब्राह्मणे ऋषये नम:! गुह्ये, अं बीजाय नम:! पादयो:, उं शक्तये नम:! नाभौ, मं कीलकाय नम:! सर्वांगे, मम मोक्षार्थे जपे विनियोग!
************************************************************
करन्यास-----
अं अन्गुष्ठायाँ नम:! उं तर्जनीभ्यां नम:! मं मध्यमाभ्यां नम:! अं अनामिकाभ्यां नम:! उं कनिष्ठिकाभ्यां नम:! मं करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:!
*******************************************************************
हृदयादिन्यास---
*********************
अं ब्राह्मणे हृदयाय नम:! उं विष्णवे सिरसे स्वाहा! में रुद्राय सिरसे वषट! अं ब्राह्मणे कवचाय हुम! उं विष्णवे नेत्रायाय वौषट! मं रुद्राय अस्त्राय फट !
************************************************************
ध्यान ---
ॐकारं निगमैकवेद्यमणिशं वेदान्ततत्त्वास्पदं...
चोत्पत्तिस्थिथिनाशहेतुममलं विश्वस्य विश्वात्मकम !
विश्वत्राणपरायणं श्रुतिशतै: सम्प्रोच्यमानं प्रभुं...
सत्यं ज्ञानमनन्तमूर्तिममलं शुद्धात्मकं तं भजे!!
************************************************
नमस्कार---
ॐकारं विन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनी:!
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम:!!
**************************************************
प्रणव-जप का फल ----
तत: प्रत्यक चेतना धिगमोsप्यंतरायाभावश्च!
अर्थात प्रणव के जप से आत्मा स्वरुप की प्राप्ति टाटा सारे विघनों का नाश होता है!
****************************************
भागावान्शंकाए ब्रह्मा जी से कहते हैं---
तत्तन्मन्त्रेण तत्सिद्धि: सव सिद्धिरितो भवेत् !
**************************************
कृष्ण, राम, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, अन्य सभी देवता भी इसी मन्त्र का जाप करते हैं!
------------------------------------"शिव एव न संशय:"------------------------------------
आगे का भाग यदि मेरे मित्रगन लिखें कि ॐकार के करने व् जपने पर किस प्रकार कि सिद्धि मिलाती है! और तत्त्वों से इस का सम्बन्ध है!
संसार में इस बाद कर कोई भी मन्त्र नहीं है. चाहे वह मन्त्र गायत्री हो या अन्य कोई भी मन्त्र हो! शिव कथन! [आगे गुप्त रहस्य है]
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इस प्रणव मन्त्र को तारक मन्त्र कहा जाता है, क्योंकि इस मन्त्र द्वारा प्राणिमात्र भव-समुद्र से तर जाते हैं! भगवान् शंकर कहते हैं---
एनमेव देवेशे सर्वमन्त्रशिरोमणिम!
काश्याम्हं प्रदास्यामि जीवानां मुक्तिहेतवे!!
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अर्थात हे देवी! सर्व मन्त्रों के शिरोमणि इस ओंमकार को ही मैं काशी में प्राणत्याग करने वाले जिवून को मुक्ति हेतु देता हूँ!
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अधिकारी भवेद्यस्य वैराग्यं जायते दृढम!
अर्थात जिसे दृढ वैराग्य हो वही इसका अधिकारी है!
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प्रणब का स्थान---
आधारों मणिपूरश्च हृदयं तु तत: परम!
विशुद्धिराज्ञा च तत: शक्ति: शान्तिरिति करामात!!
स्थानान्येतानि देवेशि शान्तयतीतं परात्पराम!!
अर्थात---
आधार, मणिपूर, हृदय, विशुद्धिचक्र, आज्ञाचक्र, शक्ति और शान्ति--ये कलाक्रम से प्रणव के स्थान हैं, गे देवी! शान्ति से अतीत है उसको
"परात्पर: कहते हैं!
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उपासना-विधि
******************** ह्त्पुणडरीकं [शब्द भेद आधा ण है] विरजं विशोकं विशदं परम!
अष्टपत्रं केशराढयं कर्निकोपरि [ न=ण] शोभितम!!
आधार शक्तिमारभ्य त्रितत्त्वान्तमयं पदम्!
विचिन्त्य मध्यतस्तस्य दहरं क्योम भावयेत !!
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरण मां त्वया सह!
चिन्तयेन्मध्यतस्तस्य नित्यमुद्युक्तमानस:!!
अर्थात---
उपासक स्वच्छा, शोक रहित, उज्ज्वल, अष्टदल कमल के समान मकरन्द युक्त, कर्णिका से शोभायमान हृदय-कमल के मध्य में आधार-शक्ति से आरम्भ करके त्रितत्त्वमय उत्तम पदका द्य्हान करके दहर व्योम की भावना करे! " ॐ" इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण कर तुम्हारे साथ मेरा दहराकाश के बीच में सदा उत्कंठा से चिंतन करे!
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उपासना का फल ----
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एवं विधोपासकस्य मल्लोकगतिमेव च!
मत्तो विज्ञानमासाद्य मत्सायुज्यफलं प्रिये!!
अर्थात हे प्रिये! इस प्रक्जार उपासना करने वाले को मेरे लोक की गति प्राप्त होती है और मुझ से ज्ञान प्राप्त कर अह मी ही सायुज्य को प्राप्त हो जता है!
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जप---विधि-----
ॐ अस्य श्री प्रणव मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, गायत्री छंद:, परमात्मा सदाशिवो देवता, अं बीजम, उं शक्ति, मं कीलकम, मम मोक्षार्थे जपे विनियोग!
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अंगन्यास----
शिरसि, ब्राह्मणे ऋषये नम:! गुह्ये, अं बीजाय नम:! पादयो:, उं शक्तये नम:! नाभौ, मं कीलकाय नम:! सर्वांगे, मम मोक्षार्थे जपे विनियोग!
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करन्यास-----
अं अन्गुष्ठायाँ नम:! उं तर्जनीभ्यां नम:! मं मध्यमाभ्यां नम:! अं अनामिकाभ्यां नम:! उं कनिष्ठिकाभ्यां नम:! मं करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:!
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हृदयादिन्यास---
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अं ब्राह्मणे हृदयाय नम:! उं विष्णवे सिरसे स्वाहा! में रुद्राय सिरसे वषट! अं ब्राह्मणे कवचाय हुम! उं विष्णवे नेत्रायाय वौषट! मं रुद्राय अस्त्राय फट !
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ध्यान ---
ॐकारं निगमैकवेद्यमणिशं वेदान्ततत्त्वास्पदं...
चोत्पत्तिस्थिथिनाशहेतुममलं विश्वस्य विश्वात्मकम !
विश्वत्राणपरायणं श्रुतिशतै: सम्प्रोच्यमानं प्रभुं...
सत्यं ज्ञानमनन्तमूर्तिममलं शुद्धात्मकं तं भजे!!
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नमस्कार---
ॐकारं विन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनी:!
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम:!!
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प्रणव-जप का फल ----
तत: प्रत्यक चेतना धिगमोsप्यंतरायाभावश्च!
अर्थात प्रणव के जप से आत्मा स्वरुप की प्राप्ति टाटा सारे विघनों का नाश होता है!
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भागावान्शंकाए ब्रह्मा जी से कहते हैं---
तत्तन्मन्त्रेण तत्सिद्धि: सव सिद्धिरितो भवेत् !
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कृष्ण, राम, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, अन्य सभी देवता भी इसी मन्त्र का जाप करते हैं!
------------------------------------"शिव
आगे का भाग यदि मेरे मित्रगन लिखें कि ॐकार के करने व् जपने पर किस प्रकार कि सिद्धि मिलाती है! और तत्त्वों से इस का सम्बन्ध है!
संसार में इस बाद कर कोई भी मन्त्र नहीं है. चाहे वह मन्त्र गायत्री हो या अन्य कोई भी मन्त्र हो! शिव कथन! [आगे गुप्त रहस्य है]
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Añadida el 17 de enero
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Anupam madhuray jodi humare shyam shyama ki
rasili madbhari ankhiya humare shyam shama ki
katili bhav ada banki
sudhar surat madhur batiya
latak gardan ki man basiya
humare shyam shyama ki
anupam maduray jodi humare shyam shyama ki
mukut aur chandrika mathe
adhar par paan ki lali
aho kaisi bhali chavi hain
humare shyam shyama ki
anupam madhray jodi humare hyam shyama ki
paraspar milke jab yeh vihare
yeh vrindavan ke kunjo mein
nahi varnat bane shobha humare shyam shyama ki
anupam madhray joodi humare shyam shyama ki
nahi kuch laalsa dan ki
nahi nirvan ki icha
sakhi veh mujhko de darshan
daya ho shyam shyama ki
anupam madhray jodi humare shyam shyama ki
anupam madhuray jodi humare shyam shyama ki
rasili madbhari ankhiya humare shyam shama ki.....
rasili madbhari ankhiya humare shyam shama ki
katili bhav ada banki
sudhar surat madhur batiya
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humare shyam shyama ki
anupam maduray jodi humare shyam shyama ki
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nahi varnat bane shobha humare shyam shyama ki
anupam madhray joodi humare shyam shyama ki
nahi kuch laalsa dan ki
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sakhi veh mujhko de darshan
daya ho shyam shyama ki
anupam madhray jodi humare shyam shyama ki
anupam madhuray jodi humare shyam shyama ki
rasili madbhari ankhiya humare shyam shama ki.....
तुम ने अगर दिल मिलाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते|
न यह हिम पिघलता न नदियां ये बहती
न नदियां मचलती न सागर में मिलती।
सागर की बाहों में गर समाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
न साग्र यह तपता न बादल ये बनते
न बादल पिघलते न जलकण बरसते
जलकण धरा मे गर समाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
न रितुयें बदलती न ये फूल खिलते
न तितली बहकती न भौरे मचलते
अगर प्यार के ये झरोखे न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते
तुम ने अगर दिल मिलाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
तो तुम तुम न होते हम हम न होते|
न यह हिम पिघलता न नदियां ये बहती
न नदियां मचलती न सागर में मिलती।
सागर की बाहों में गर समाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
न साग्र यह तपता न बादल ये बनते
न बादल पिघलते न जलकण बरसते
जलकण धरा मे गर समाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
न रितुयें बदलती न ये फूल खिलते
न तितली बहकती न भौरे मचलते
अगर प्यार के ये झरोखे न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते
तुम ने अगर दिल मिलाये न होते
तो तुम तुम न होते हम हम न होते |
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